अच्छी थी, पगडंडी अपनी, सड़कों पर तो जाम बहुत है।
फुर्र हो गई फुर्सत अब तो, सबके पास काम बहुत है।
नहीं जरुरत बूढ़ों की अब,हर बच्चा बुद्धिमान बहुत है।
उजड़ गए,सब बाग बगीचे, दो गमलों में शान बहुत है।
मट्ठा,दही नहीं खाते हैं, कहते हैं, जुकाम बहुत है।
पीते हैं जब चाय तब कहते हैं आराम बहुत है।
बंद हो गई चिट्ठी पत्री, व्हाट्स एप्प पर, पैगाम बहुत है। सुविधाओं का, ढेर लगा है,पर इंसान परेशान बहुत है।
लेखक राम वृक्ष भूतपूर्व इंजीनियर एवं प्राकृतिक चिकित्सक वाराणसी से