विंध्य प्रदेश के घने जंगलों और ऊँचे पहाड़ों के बीच, एक महान राजवंश का उदय हुआ जिसे हम “विंध्य बिंद राजवंश” के नाम से जानते हैं। इस राजवंश के संस्थापक, महायोद्धा विंध्यशक्ति थे, जिन्होंने 248 ईस्वी से 284 ईस्वी तक शासन किया। विंध्यशक्ति का जन्म एक आदिवासी परिवार में हुआ था, लेकिन उनकी युद्ध कला, साहस और बाहुबल ने उन्हें इतिहास में अमर बना दिया। उन्होंने अपने बाहुबल के दम पर कई बड़े युद्धों में विजय प्राप्त की और एक नए राज्य की स्थापना की, जिसे बाद में “बिंदु वंश” कहा गया।
विंध्य बिंद राजवंश की शक्ति और सामर्थ्य समय के साथ बढ़ती गई। इस वंश के कई प्रमुख योद्धाओं ने मध्य प्रदेश, बरार और बुंदेलखंड पर अपने बाहुबल से शासन किया। इनके शौर्य और वीरता की गाथाएँ शिलालेखों और पुरानी पांडुलिपियों में मिलती हैं, जो इस बात की पुष्टि करती हैं कि यह वंश नागवंश से गहरे संबंध रखता था। नागवंशी मध्य भारत के मूल निवासी थे, और विंध्य बिंद राजवंश ने इनसे विवाह संबंध स्थापित किया, जिससे उनकी शक्ति और भी बढ़ी।
इतिहासकारों का मत है कि “वाकाटक” शब्द का अर्थ है “बाघ या शेर को मारने वाला”। यह नाम इस राजवंश के योद्धाओं की वीरता और शक्ति को दर्शाता है, जो शेरों की तरह निडर थे और अपने शत्रुओं का अंत कर देते थे। कई इतिहासकारों का यह भी मत है कि झांसी जिले के ओरछा राज के उत्तरी भाग में स्थित एक पुराना गाँव “बघाट” से यह वंश “वाकाटक” कहलाया। स्थान भेद और कालक्रम से इस वंश का नाम “विंध्य वंश” पड़ा, जिसका अप्रभव “बिंद” या “बीन” हुआ।
समय के साथ, जब इस राजवंश का शासन समाप्त हो गया, तो इनके वंशज जो तालुकदार, जमींदार और जागीरदार रह गए, वे अपने को “विंध्यल” या “बुंदेल राजपूत” कहलाने लगे। हालांकि, अब उनके पास पहले जैसी शक्ति नहीं रह गई थी और वे धीरे-धीरे “बिंद” या “बीन” के नाम से जाने जाने लगे। कहा जाता है कि यह वंश गोंड वंश के मूल निवासी थे और इनके साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी पहचान बनाई।
विंध्य बिंद राजवंश का इतिहास आज भी मध्य भारत के गौरव और पराक्रम की एक जीवंत कहानी है, जो सदियों तक स्मरणीय रहेगी।
यह लेखन बाबू जी की अमूल्य रचना “भारत का आदिवासी” पुस्तक से लिया गया है