श्रृंगवेरपुर राज्य पर निषादों का कब्जा था, और इस राज्य के निषाद धनुर्विद्या में प्रारंभ से ही माहिर माने जाते थे। उनके इस अद्वितीय कौशल के कारण कोई भी राजा या राज्य उनसे युद्ध करने से पहले कई बार सोचने पर मजबूर हो जाता था। इस राज्य के सेनापति, बलशाली और युद्धकला में निपुण हिरण्यधनु के नेतृत्व में श्रृंगवेरपुर ने कई पड़ोसी राज्यों को आत्मसमर्पण करने पर विवश कर दिया था। हिरण्यधनु की युद्धनीति और उनकी वीरता की कई गाथाएं प्रचलित थीं, जिनकी वीरता का लोहा सभी राज्यों ने माना था।
मगध सम्राट जरासंध और हिरण्यधनु के बीच गहरी मित्रता और पारिवारिक संबंध थे। जब भी जरासंध किसी बड़े युद्ध के लिए जाते, वह अपने मित्र हिरण्यधनु को अपनी सेना का सेनापति नियुक्त कर देते थे। जरासंध का मानना था कि यदि हिरण्यधनु उनकी सेना का नेतृत्व करेंगे, तो मगध की हार असंभव होगी। यही कारण था कि जरासंध हमेशा हिरण्यधनु को अपने बड़े अभियानों का हिस्सा बनाते थे।
मगध और निषाद दोनों ने कई युद्धों में एक साथ हिस्सा लिया और एकजुट होकर उन्होंने कई राज्यों को पराजित किया। मथुरा पर आक्रमण करके इन दोनों मित्र सेनाओं ने कई बार मथुरा की सेना को भी हराया था। हिरण्यधनु की सेना बहुत विशाल और साहसी योद्धाओं से भरी थी। उनके सेनापति गिरिवीर की वीरता दूर-दूर तक विख्यात थी।
जरासंध, जो मल्ल युद्ध में विश्वविख्यात थे, और उनके मित्र हिरण्यधनु की युद्ध नीति और रणकौशल भी सर्वोच्च मानी जाती थी। जब यह दोनों मित्र सेनाएं एक साथ होती थीं, तो श्रीकृष्ण जैसे योद्धा भी चिंतित हो उठते थे। ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने कई बार निषादों पर आक्रमण किया था, खासकर तब जब वे समुद्र के बीच अपनी राजधानी बना रहे थे। श्रीकृष्ण और निषादों के बीच कई बार भयंकर युद्ध हुए, जिन्हें हिरण्यधनु के वंशजों ने लड़कर जीत हासिल की।
हिरण्यधनु के पुत्र और उनके वंशजों ने भी अपने समय में कई बड़े युद्ध लड़े और अपने राज्य को बलशाली और समृद्ध बनाया। उनके पुत्र एकलव्य ने भी अपने पिता की तरह युद्धकला में निपुणता प्राप्त की और राज्य के विकास में अहम योगदान दिया।
हिरण्यधनु और जरासंध के इस मित्रता और युद्धनीति की गाथाएं आज भी हमारे इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इन दोनों महावीरों के योगदान को याद करते हुए हमें उनके बलिदानों और वीरता को उजागर करना चाहिए।
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