कानपुर जब प्रकृति ,पुरुष परमात्मा यह तीनों ही परस्पर एक होकर महारास(जल) का रूप धारण कर लेते हैं! तब जड़ता वह चेतनता अमरता व मरता तरलता व सरलता व सघनता व विरलता अमलता व विमलता आदि विरोधाभासी भावों का लोप हो जाता है, यह स्थिति ही महारास होती है । विविधताएं ही शुध बुध खोकर भिन्न से अभिन्न हो जाती है। जिस क्षण, जिसे भी जहां भी ऐसा अनुभव होता है तत्क्षण वह ही परमात्मा स्वरूप हो जाता है। इसलिए वेदों में भगवान को रसों वैसा ही कहा जाता है प्रेम ही वह रास (रस्सी) है जिससे बंधकर अथवा प्रेम ही वह महासागर है। जिसमें डूब कर कोई भी कहीं-कभी भी कहीं भी अपने में ही भगवान की अनुभूति कर सकता है।