पिता की मृत्यु के बाद, एकलव्य श्रृंगवेर राज्य का शासक बना। उसने आमात्य परिषद की सलाह से न केवल अपने राज्य का संचालन किया, बल्कि निषाद भीलों की एक सशक्त सेना और नौसेना का गठन भी किया। एकलव्य ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। इसी बीच, जब मथुरा के राजा कंस का वध हुआ, तो कंस के संबंधी, मगध नरेश जरासन्ध और शिशुपाल आदि के संयुक्त हमलों से भयभीत होकर श्रीकृष्ण, बलराम और यादव कुल के अन्य सदस्यों के साथ पश्चिम की ओर भागे। उस समय निषादराज एकलव्य ने श्रीकृष्ण की याचना पर उन्हें शरण दी।
एकलव्य की सहायता से यादवों ने सागर तट पर द्वारिका में एक सुरक्षित स्थान पर निवास किया। धीरे-धीरे यादवों ने अपनी शक्तियों का विस्तार किया और बलराम के नेतृत्व में निषादराज की सीमाओं पर कब्जा करना प्रारंभ किया। इस बीच श्रीकृष्ण ने अपनी नारायणी सेना का गठन भी कर लिया था।
अब युद्ध होना निश्चित था। एकलव्य ने सेनापति गिरिबीर के नेतृत्व में कई बार यादव सेना का सामना किया, लेकिन यादवों का दबाव बढ़ता गया। अंततः एकलव्य ने स्वयं सेना सहित यादवों से युद्ध करने का निर्णय लिया। बलराम और एकलव्य के बीच भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें एकलव्य विजयी हुए। परंतु, विजय की खुशी अधिक देर तक नहीं टिक सकी। कृष्ण की नारायणी सेना ने अचानक पीछे से हमला किया, जिससे एकलव्य घिर गए और उनका रक्तरंजित अंत हुआ।
महाबली एकलव्य की मृत्यु से निषादों में गहरा क्षोभ उत्पन्न हुआ। यदुकुल के पतन के बाद, उन्हीं निषादों में से एक वीर ने कृष्ण की हत्या कर दी। जब यदुवंशीय परिवारों को अर्जुन द्वारिका से हस्तिनापुर ले जा रहे थे, तो निषाद-भीलों की सेना ने बदला लेने के लिए मार्ग में उन्हें घेरकर भीषण मारकाट मचाई। अर्जुन को पराजित कर पुरुषों को बंदी बना लिया गया और यदुवंश की सुंदरियों-गोपियों का अपहरण कर लिया।
“भीलन लूटी गोपिका,
ओई अर्जुन ओई बाण ll”
महाबली एकलव्य की कहानी केवल एक योद्धा की नहीं, बल्कि साहस, त्याग, और अस्मिता की उस लड़ाई की है, जिसे सदियों तक याद रखा जाएगा।