एकलव्य निषाद वंश के राजा थे, जिनकी वीरता और साहस की कहानियाँ सदियों से भारतीय जनमानस में गूँजती रही हैं। निषाद वंश या जाति का सबसे पुराना उल्लेख “तैत्तरीय संहिता” में मिलता है, जहाँ इन्हें अनार्य जातियों में से एक माना गया है। “एतरेय ब्राह्मण” नामक ग्रंथ में निषादों को क्रूर कर्म करने वाला और सामाजिक दृष्टि से शूद्र माना गया है। महाभारत काल में, प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश में स्थित श्रृंगवेरपुर नामक एक विशाल और सुदृढ़ राज्य था, जो निषादराज हिरण्यधनु के अधीन था। गंगा के तट पर स्थित यह राज्य अपनी शक्ति में मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि, और चन्देरी जैसे बड़े राज्यों के समकक्ष था।
निषादराज हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता सर्वत्र विख्यात थी। उनके शासन में निषाद जनता सुखी और सम्पन्न थी, और राज्य का संचालन आमात्य (मंत्री) परिषद की सहायता से किया जाता था। निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा का एक पुत्र हुआ, जिसका नाम “अभिद्युम्न” रखा गया, लेकिन लोग उसे “अभय” के नाम से बुलाते थे। पाँच वर्ष की आयु में अभय की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरुकुल में की गई, जहाँ उसकी लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरु ने उसका नाम “एकलव्य” रखा।
जैसे-जैसे एकलव्य बड़ा हुआ, उसने धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। उस समय के सबसे प्रसिद्ध धनुर्विद्या गुरु, द्रोणाचार्य, केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग को शिक्षा देते थे और शूद्रों को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे। निषादराज हिरण्यधनु ने अपने पुत्र को समझाया कि द्रोणाचार्य उसे शिक्षा नहीं देंगे, लेकिन एकलव्य ने ठान लिया कि वह द्रोणाचार्य को प्रभावित कर उनका शिष्य बनेगा।
हालांकि, द्रोणाचार्य ने उसे आश्रम से भगा दिया। लेकिन एकलव्य हार मानने वालों में से नहीं था। उसने वन में आचार्य द्रोण की एक प्रतिमा बनाई और उसी प्रतिमा के समक्ष धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। शीघ्र ही उसने इस विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली। एक दिन, जब द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ उसी वन में आए, तो एकलव्य का कौशल देख दंग रह गए। जब द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उसकी शिक्षा के बारे में पूछा, तो एकलव्य ने आचार्य द्रोण की मिट्टी की प्रतिमा की ओर इशारा करते हुए कहा कि उसने उनसे ही यह विद्या सीखी है।
इस पर द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में एकलव्य से उसका दायाँ अंगूठा माँगा। एकलव्य ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपना अंगूठा काटकर गुरुदक्षिणा स्वरूप द्रोणाचार्य को अर्पित कर दिया। इसके बाद भी, एकलव्य ने अपने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या में पुनः दक्षता प्राप्त कर ली। आज के युग में आयोजित होने वाली तीरंदाजी प्रतियोगिताओं में अंगूठे का प्रयोग नहीं होता, इसलिए एकलव्य को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहा जा सकता है।