यह जीवन का रूप अधूरे सपनों की छाया है,
जग तो केवल चित्र है, इसमें मन क्यों उलझाया है।
जैसे सागर में जल ही तो लेता रूप तरंगों का,
वैसे ही कुछ मूल्य नहीं है, जीते मरते अंगों का।
सोचो तो सागर के जल ने क्या खोया पाया है?
जो प्रशांत है, वह लहरों से होता कभी अशांत नहीं,
जीवन एक अकाट्य सत्य है, जिसका पूर्ण वृतांत नहीं।
जिसको सत् का ज्ञान हो गया, वह न भरमाया है,
जब तक प्रकट प्रकाश न होता, तब तक जीवित अंधकार है।
प्रतिपल ही जो बदल रही है, वह निर्भरता निराधार है।
मोह किया जिसने रूपों से, वह ही पछताया है।
इच्छाएं मानव ही नहीं, भगवान को भी कर देती बौना,
जो इच्छा को मान ना देते, धरती उसका सुखद बिछौना।
इच्छा मृग ने ही चेतन को तृण सम भटकाया है,
जग तो केवल चित्र है, इसमें मन क्यों उलझाया है।।