कश्यप सन्देश

निषादों का गर्व : राजाराज चोल : एक शक्तिशाली हिंदू शासक

ए. के. चौधरी की कलम से

चोल प्राचीन भारत का एक गौरवशाली राजवंश था, जिसने दक्षिण भारत के साथ-साथ आस-पास के क्षेत्रों में भी अपनी शक्ति का विस्तार किया। नौवीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के बीच तमिल चोल शासकों ने एक शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य की नींव रखी, जिसमें समुद्री और भूमि विजय का विशेष योगदान रहा।

प्रथम राजाराज चोल (947 – 1014 ईस्वी) तंजावुर (जो आज का तमिलनाडु है) में जन्मे थे और चोल द्रविड़ निषाद नौसेना राजवंश के महानतम सम्राटों में से एक थे। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य ने अपने सीमाओं का विस्तार दक्षिण में श्रीलंका से लेकर उत्तर में कलिंग तक कर लिया। राजाराज चोल की शक्ति और कुशल नेतृत्व ने चोलों को केवल भूमि पर ही नहीं, बल्कि समुद्रों पर भी अपराजेय बना दिया।

राजाराज चोल ने कई नौसैन्य अभियानों का संचालन किया, जिसके परिणामस्वरूप मालाबार तट, मालदीव और श्रीलंका उनके अधीन आ गए। यह विजय केवल सैन्य शक्ति का प्रतीक नहीं थी, बल्कि उनकी नौसेना की रणनीतिक क्षमता का भी प्रमाण थी, जिसने उन्हें दक्षिणी समुद्रों का निर्विवाद शासक बना दिया।

उन्होंने हिंदू धर्म के प्रति अपनी गहरी श्रद्धा का परिचय दिया और तंजौर में बृहदीश्वर मंदिर का निर्माण कराया, जो आज भी विश्व धरोहर के रूप में यूनेस्को द्वारा संरक्षित है। यह मंदिर न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि चोल वास्तुकला और निर्माण कला की उत्कृष्टता का जीता-जागता उदाहरण भी है।

सन 1000 में, राजाराज चोल ने एक महान भू सर्वेक्षण परियोजना शुरू कराई, जिससे उनके साम्राज्य को वलनाडु इकाइयों में पुनर्संगठित करने में मदद मिली। इस परियोजना ने चोल प्रशासनिक प्रणाली को और अधिक सुदृढ़ किया, जिससे उन्हें एक समृद्ध और सुव्यवस्थित साम्राज्य की स्थापना में सहायता मिली।

राजाराज चोल ने “शशिपादशेखर” की उपाधि धारण की, जो उनकी शक्ति और राजसी गरिमा का प्रतीक थी। उनका शासनकाल चोल वंश के सुनहरे युग का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें साम्राज्य की सीमाएँ समुद्रों तक विस्तारित थीं और चोलों का प्रभुत्व अपार था।

चोलों का उदय 9वीं शताब्दी में हुआ, और उनका राज्य तुंगभद्रा नदी तक फैल गया। चोल राजाओं ने एक शक्तिशाली नौसेना का विकास किया, जिसने उन्हें समुद्री व्यापार और सैन्य अभियानों में अजेय बना दिया। इस वंश की स्थापना विजयालय ने की थी, लेकिन राजाराज चोल और उनके उत्तराधिकारी कोतूतुंग तृतीय ने इसे अभूतपूर्व ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

राजाराज चोल की कहानियाँ निषादों के गर्व का प्रतीक हैं, जिन्होंने अपनी शक्ति, साहस और दृढ़ संकल्प से इतिहास के पन्नों पर अमिट छाप छोड़ी है। उनका नाम आज भी भारत के महानतम शासकों में गर्व से लिया जाता है।

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