काहार शब्द का संस्कृत में अर्थ “स्कंध-कारा” है, यानी वह जो अपने कंधों पर वस्तुएं ढोता है। यह जनजाति विभिन्न प्रकार के कार्यों में संलग्न है, जैसे जलाशयों में जल-नट उगाना, मछली पकड़ना, पालकी ढोना और घरेलू सेवा करना। इन विभिन्न पेशों के कारण काहार जाति और उसकी उप-जातियों का एक विस्तृत विश्लेषण किया जा सकता है।
कभी-कभी काहारों को “महरा” भी कहा जाता है, जिसका संस्कृत में अर्थ “महिला” होता है, क्योंकि इन्हें महिलाओं के कक्षों में प्रवेश की अनुमति होती है। इन्हें “धीमार” भी कहा जाता है, जिसका संस्कृत में अर्थ “धिवर” यानी मछुआरा होता है। दक्षिण भारत में इन्हें “भोई” के नाम से जाना जाता है, जिसमें तेलुगु और मलयालम में “बोई” और तमिल में “बोवी” कहा जाता है। कुछ स्थानों पर इन्हें “सिंघारिया” कहा जाता है क्योंकि वे सिंघाड़ा या जल-नट की खेती करते हैं।
पिछली जनगणना में, काहारों ने खुद को पंद्रह उप-जातियों के तहत दर्ज किया था। इनमें बथम, बोट, धीवर, खरवार, महार, धीमार, धुरिया, घरुक, जैसवार, कामकार, मल्लाह, रैकवार, रवानी, सिंघारिया और तुराई शामिल हैं।
काहार जाति की विविधता और उनके विभिन्न कार्य उन्हें भारतीय समाज में एक अनूठा स्थान देते हैं। उनके विभिन्न नाम और पेशे उनके समाज में महत्वपूर्ण योगदान को दर्शाते हैं। यह जाति, जिसकी जड़ें प्राचीन काल से हैं, आज भी अपनी पहचान और परंपराओं को संजोए हुए है।
मनोज कुमार मछवारा की कलम से, यह कहानी काहार जाति की विशेषताओं और उनके योगदानों को दर्शाती है, जो भारतीय समाज की विविधता और समृद्धि का प्रतीक है।