प्रकृति, पुरुष और परमात्मा—ये तीनों जब परस्पर एकाकार होकर महारास (जल) का रूप धारण करते हैं, तब जीवन की सभी विरोधाभासी भावनाएँ, जैसे जड़ता और चेतनता, अमरता और मरता, तरलता और सरलता, सघनता और विरलता, अमलता और विमलता, सब लोप हो जाती हैं। यह वही क्षण होता है जब विविधताएं अपनी शुद्ध बुद्धि खोकर भिन्न से अभिन्न हो जाती हैं।
इस अवस्था को ही महारास कहा जाता है, जहाँ सभी भेदभाव समाप्त हो जाते हैं, और केवल एकता का अनुभव होता है। जब भी किसी व्यक्ति को यह अनुभूति होती है, वह उस क्षण परमात्मा स्वरूप हो जाता है। इसीलिए वेदों में भगवान को “रसों वैसा” कहा गया है, जो इस स्थिति का प्रतिरूप है।
प्रेम ही वह रस्सी है जिससे बंधकर, अथवा प्रेम ही वह महासागर है जिसमें डूबकर कोई भी व्यक्ति, कहीं भी, कभी भी, स्वयं में ही भगवान की अनुभूति कर सकता है। इस स्थिति में व्यक्ति का अस्तित्व और परमात्मा का अस्तित्व एकाकार हो जाता है, और यही महारास की परम अवस्था है।
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि जब हम अपनी विभिन्नता को खोकर एकता में विलीन हो जाते हैं, तब हमें अपने भीतर परमात्मा का अनुभव होता है। इस अनुभव के लिए हमें प्रेम की रस्सी से बंधकर उस महासागर में डूबना होता है, जहाँ केवल एकता और पूर्णता का अनुभव होता है। यही सच्चा महारास है, जो हमें परमात्मा से जोड़ता है।