कश्यप सन्देश

जुब्बा सहनी: अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बलिदान की अनकही दास्तान :ए. के. चौधरी की कलम से

भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान जुब्बा साहनी ने 16 अगस्त 1942 को मीनापुर थाने के अंग्रेज इंचार्ज लियो वालर को आग में जिंदा झोंक दिया था। बाद में पकड़े जाने पर उन्हें 11 मार्च 1944 को फांसी दे दी गयी। उनके नाम पर मुजफ्फरपुर शहर में जुब्बा साहनी खेल स्टेडियम तथा पार्क बना है जो दर्शनीय है।


स्वतंत्रता संग्राम के वीर सिपाही जुब्बा सहनी का आविर्भाव उन दिनों हुआ था जब अंग्रेजी राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था। अंग्रेजों के अत्याचार एवं शोषण से भारत जर्जर हो चुका था। जुब्बा सहनी का जन्म सन् 1906 ई. में मुजफ्फरपुर जिले के मीनापुर थाने के अंतर्गत चैनपुर बस्ती के एक अत्यंत निर्धन मल्लाह में परिवार में हुआ था। जुब्बा सहनी के पिता का नाम पाचू सहनी था। जब जुब्बा ने होश संभाला तब उन्हें भी अपने माता-पिता एवं बड़े भाई के साथ मजदूरी करने के लिए जाना पड़ा। पर जुब्बा बचपन से ही स्वाभिमानी और स्वतंत्र विचारों के थे। किसी बड़े आदमी के खेत में काम करना या उनकी बात सहना उन्हें कतई पसंद नहीं था। फिर भी गरीबी से तंग आकर अपने एक परिचित व्यक्ति के अनुरोध पर उन्होंने 1927 में भिखनपुर चीनी मील के एक एग्रिकलचरल फार्म में मजदूर का काम करना स्वीकार कर लिया। जुब्बा इस फार्म में कभी ईख काटने, तो कभी ईख को मिल में भेजने के लिए ट्राली पर ईख लादने का काम करते थे। उन दिनों मजदूरी के रूप में प्रति मजदूर डेढ़ या दो आने मजदूरी मिलती थी। चीनी मिल में काम करने वाले. अफसर प्रायः अँग्रेज और कुछ बंगाली होते थे। एग्रिकलचरल फार्म में काम करनेवाले मजदूरों पर निगरानी रखने के लिए कई अँग्रेज सुपरवाइजर बहाल थे। इनमें से अधिकांश बहुत कड़े मिजाज के सुपरवाइजर थे। सुपरवाइजर काम के समय भी बराबर शराब का इस्तेमाल करते थे और कभी-कभी तो नशे में किसी मजदूर पर हाथ भी उठा दिया करते थे। एक दिन जब खाना खाने का समय हुआ, तब जुब्बा समय से थोड़ा पहले ही काम रोक कर खाना खाने चले। इसी बीच नशे में धुत्त सुपरवाइजर ने उन्हें देख लिया और तेजी से पास आकर इनको डाँटते हुए कहा- ‘‘वो ब्लैक मैन, डैम फुलिश, टुम काम नहीं करटा हाय।’’ इतना कहकर उसने जुब्बा को अपने बूट से मारना शुरू किया। यह देख जुब्बा अवाक् रह गए। कुछ देर तक वे बोल नहीं पाए। सिर्फ पीछे हटते रहे। सुपरवाइजर की पहली बात तो जुब्बा की समझ में नहीं आयी, पर वे दूसरे वाक्य का मतलब समझ गए। जूते की ठोकर की मार से जुब्बा का तमाम जिस्म झनझना उठा। अब वे एक भूखे शेर की तरह उस पर टूट पड़े और सुपरवाइजर को खेत में पटक कर उन्होंने खूब पीटा और फिर ईख के घने खेत से होते हुए सबों की आंखों से ओझल हो गए। जुब्बा बचपन से दिलेर थे। अप्रैल, 1930 में महात्मा गाँधी के आह्वान पर पूरे भारत में आंदोलन जोर पकड़ चुका था। वे गांधीजी के आह्वान पर नमक सत्याग्रह आन्दोलन, शराब गाजा की दुकानों पर धरना, सरकार को चैकीदारी टैक्स न देने के लिए गाँव-गाँव में अभियान चलाना, विदेशी कपड़ों के आयात पर रोक लगाने के लिए प्रचार कार्य में शरीक होना तथा हरिजन उद्धार आंदोलन को तेज करने में बराबर आगे रहे और इस दरम्यान सन् 1932, 1934 और 1942 ई. में उन्हें जेल जाना पड़ा।

1932 ई. के दिसंबर महीने में मुजफ्फरपुर के सरैयागंज मारवाड़ी धर्मशाला के निकट शराब की दुकान पर नशाखोरी के विरुद्ध पिकेटिंग करते समय अंग्रेज पुलिस की मार से जुब्बा घायल हुए और उनकी बायी पसली की तीन हड्डियां टूट गयी। 1930 के नमक आंदोलन से लेकर 1942 के अं्रगेजों भारत छोड़ो आन्दोलन के समय तक इनके क्रांतिकारी कदम लगातार बढ़ते रहे। अगस्त, 1942 में इनके नेतृत्व में सरकारी दफ्तरों, डाकघरों, पुलिस स्टेशों में आग लगाने एवं उनपर अपना तिरंगा फहराने का आंदोलन चलता रहा। बिजली और टेलीफोन के तार काट डाले गए। इधर मीनापुर थाने के एस. आई. लिओ वालर का क्रोध आंदोलनकारियों के प्रति अपनी सीमा को लांघ रहा था। 15 अगस्त, 1942 को रामपुरहरि की घटना ने आंदोलनकारियों को उत्तेजित कर दिया। 12 अगस्त, 1942 को भी मीनापुर थाना पर आक्रमण करने का असफल प्रयास किया गया था। 16 अगस्त, 1942 के दोपहर के पहले भी एक बार थाने पर आक्रमण हो चुका था, परन्तु आंदोलनकारियों की संख्या कम होने के कारण वे पीछे हट कर पुनः आक्रमण करने की ताक में थे, इसी बीच पश्चिम और उत्तर की ओर से दो बजे दिन में जुब्बा के नेतृत्व में हजारों की संख्या में आंदोलनकारियों ने मीनापुर थाना पर धावा बोल दिया। बहादुरों आगे बढ़ो ! इन्कलाब जिन्दाबाद, इन्कलाब जिन्दाबाद। वालर ने थाना और अपनी रक्षा हेतु आस-पास के अपराधकर्मियों को भी थाने पर बुला रखा था। परन्तु जुब्बा भाई के हौसले के सामने सभी पस्त पड़ गये। वालर अपनी पिस्टल से दनादन गोलियां चलाने लगा। उसके पिस्टल से निकली हुई पहली गोली थाना के सामने खड़े होकर आंदोलनकारियों को ललकारते हुए 32 वर्षीय बागुर सहनी की छाती में लगी और वह जमीन पर गिरकर छटपटाने लगा। एक दूसरे कर्मठ वीर क्रांतिकारी भी जख्मी हुए। अब जुब्बा भाई का क्रोध भड़क उठा और वे तत्क्षण चालर को पकड़ कर पीटने लगे। यह देख अपराधियों ने भी आंदोलनकारियों के साथ मिलकर थाना के फर्नीचर तथा अन्य सामान बाहर निकाल कर आग लगा दी और जुब्बा भाई ने वालर को उठा कर जिंदा आग में झोक दिया। वालर को जिंदा आग में जला देने की सूचना पाते ही मुजफ्फरपुर के जिला कलक्टर बौखला कर अँग्रेज पुलिस और नगर घुड़सवार पुलिस को वहां भेज आंदोलनकारियों की धर-पकड़ शुरू कर दी। फिर भी आंदोलनकारियों का उत्साह खत्म नहीं हुआ, बल्कि यह आंदोलन और जोर पकड़ता गया और उन्होंने मीनापुर थाने को अपने अधीन कर लिया। फौज ने आनन-फानन में हजारों लोगों को गिरफ्तार कर लिया। उनमें से 118 लोगों पर कोर्ट में मुकदमा चलाया गया। परन्तु सिर्फ 56 व्यक्तियों को दोषी होने के सबूत प्राप्त हुए। परन्तु जुब्बा सहनी ने 56 साथियों की प्राण रक्षा के लिए मुजफ्फरपुर कोर्ट में आत्मसमर्पण कर दिया। केस चलता रहा। अन्त में इन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के सामने क्रांतिकारी आवाज बुलंद की- ‘वालर को इन लोगों ने नहीं मैंने मारा है।’ 38 वर्ष की उम्र में 11 मार्च, 1944 की मनहूस सुबह इन्होंने फाँसी के फंदे को हंसते-हंसते गले लगा लिया।

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